वो बचपन .. वो प्यारा बचपन
बात जब बचपन की हो तो ... ह्रदय आनंद से भर उठता है ! यादों का तूफ़ान उठता हुआ आपको अतीत मे छूटे उस पल में ले जाता है जहाँ आनंद की नदियाँ बह रही है .. और आप उस मे डुबने उतरने लगते है ! सचमुच वो एक अदभुत समय था ! वो सड़क पर मित्रो के संग दौरते हुए ऐसा लगता था पैरो मे मानो पंख लगे हो और वस हवा मे अव उरने ही वाले है ! गर्मी के छुटी के दिनों में माँ जब हमें सुलाते हुए खुद सो जाती तो चुपके से हम घर से बाहर निकल कर आम अमरुद के बगीचे का चक्कर लगाना शुरू कर देते ! कभी अमरुद के पेड़ पर चढ़ कर पके अमरुद तोरना होता , फालसे के पेड़ के नीचे से फालसा ( एक छोटा गोल काला बीज उक्त फल जो खाने में मीठा खट्टा होता है ) शहतूत के पेड़ के नीचे से पके शहतूत चुन कर जमा करना होता था और सारे फल जमा हो जाने के बाद पीपल के पेड़ की घनी ठण्डी छाव मे बैठ फलो का आनंद भाई बहनों और दोस्तों के साथ लेने में जो मज़ा था शायद आज पांच सितारा होटल में बैठ कर खाने में भी नहीं मिलता है ! याद आता है कैसे हमलोग पेड़ो पर लगे चिरीओं के घोसलों , पेडों पर लगें मधुमन्खी के छतों को हसरत से निहारते सोचते कैसे ये चिरिया ... ये मधुमन्खी काम कर रही है ! कभी - २ तो उत्सुकता इतनी बढ़ जाती की माँ चिरिया के पेड़ से उरने की राह तकते और जब चिरिया उर कर अपने बच्चो का भोजन लाने चली जाती तो फिर पेड़ पर चढ़ कर घोंसले का अवलोकन करते हुए लाइव कमेन्ट्री नीचे खरे बाकी बच्चो को बताते ! उधर नर चिरियां की नज़र जैसे मुझ पर परती कि वह आक्रामक तरीके से गुस्सा करता हुआ सर के ऊपर चोंच मारने का प्रयास करना शुरु कर देता ... आस पास से मादा भी चीखोपुकार सुन कर चली आती और बेचैन हो कर डैने को फुलाते और पचकाते हुए जोर - जोर से मानो बोल रही हो " अरे नालायक किउँ मेरे बच्चो को परेशान कर रहा है ! मुझे भी लगता कि ललक में तो मै पेड़ पर चढ़ गया लेकिन इतनी ऊचाई पर आ गया हु जहाँ पेड़ की पतली - पतली डालियाँ ही है अगर गिरा तो हड्डी पसली तक नहीं बचेगी ! ऊपर सर पर नाचती हुई नर चिरियां का आक्रामक रूप और नीचे दिखती दूर दोस्तों और भाई बहनों का सर ... लगता था शायद जिन्दा नीचे नहीं पहुच पाउँगा ! हाथ पांव तो डर से फुले लग रहे थे ..... " भैया जल्दी नीचे आ जाओं "' आधे पेड़ से नीचे आने तक पूरी ताकत झोकनी परी तब किसी तरीके से नीचे पंहुचा ये सोचते ना बाबा ना अब कल से इतनी उचाई तक तो ना चदुंगा ! नीचे उतरने के बाद मै अपने उस गुट का हीरो बन गया था ! " बाप रे ..कितने ऊपर तुम चढ़ गए ..... किसी की हिम्मत न होगी ".....क्या भैया''''''''''''' कोई बरा आदमी भी वहाँ तक ना चढ़ पायेगा ! बात सही थी लेकिन एक कमी भी थी ...एक सात साल के बच्चे का वजन और परिपक्व मर्द के वजन में बहुत अंतर होता है ! आज तो इस तरह की हरकत जान जोखिम में डालने की बात हो जाएगी ! खैर , कल फिर फलो के चक्कर में दुसरे पेड़ पर चदने के लिए मै ही आगे था .. किउकि एक दिन पहले ही तो मै अपने गुट का हीरो बना था ! दोपहर की चिलचिलाती गर्मी की वो आवारागर्दी की सजा भी बरी जबरदस्त मिलती थी ! होता यिउ था कि माँ दिन के एक बजे तक खाना बनाकर हम सब को खिला कर साथ लेकर सो जाती , हम लोग माँ के सो जाने के बाद चुपके से बिछावन से सरक कर दवे पाँव बिना कोई शोर शराबे के घर से बाहर निकल जाते ! चार बजने से पहले फिर वैसे ही दवे पांव घर में आकर माँ के बगल मे सो जाते ! माँ नींद पूरा होने के बाद उठती तो देखती की हमलोग सोये हुए है !
वाकी दुसरे दिन .....
वाकी दुसरे दिन .....
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